Tuesday, October 11, 2016

जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं

प्रस्तुत है जगद्गुरु श्री रामभद्राचार्य जी द्वारा सुसज्जित की गई उत्तरकाण्ड की एक राम स्तुति जिसे भगवान शंकर तब गाते हैं, जब रावण के वध के बाद श्री राम अयोध्या लौट रहे हैं:
 
* जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥
भावार्थ:-हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्म-मरण के संतापका नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल  इस सेवक की रक्षा कीजिए। हे अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हे  रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए॥1॥
 
* दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे॥2॥
भावार्थ:-हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाशकरके पृथ्वी के सब महान्‌ रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्रीरामजी! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाण रूपीअग्नि के प्रचण्ड तेज से भस्म हो गए॥2॥
 
* महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥3॥
भावार्थ:-आप पृथ्वी मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं, आप श्रेष्ठबाण, धनुष और तरकस धारण किए हुए हैं। महान्‌ मद, मोह औरममता रूपी रात्रि के अंधकार समूह के नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं॥3॥
 
* मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे॥4॥
भावार्थ:-कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ! हे (पाप-ताप काहरण करने वाले) हरे ! उसे मारकर विषय रूपी वन में भूल पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए॥4॥
 
*बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए॥
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते॥5॥
भावार्थ:-लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। येसब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पड़े हैं॥5॥
 
* अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें॥6॥
भावार्थ:-जिन्हें आपके चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य हीअत्यंत दीन, मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान्‌ सदा प्रिय लगने लगते हैं॥6॥
 
* नहिं राग न लोभ न मान सदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥7॥
भावार्थ:-उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद।उनको संपत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है। इसी से मुनि लोगयोग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं॥7॥
 
*करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ॥
सम मानि निरादर आदरही। सब संतु सुखी बिचरंति मही॥8॥
भावार्थ:-वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय से आपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर कोसमान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं॥8॥
 
* मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे॥
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥9॥
भावार्थ:-हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर! हे महान्‌ रणधीर एवं  अजेय श्री रघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ) हे हरि! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान्‌ औषध और अभिमान के शत्रु हैं॥9॥
 
* गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं॥10॥
भावार्थ:-आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान हैं। आपलक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूँ। हे रघुनन्दन! (आप जन्म-मरण, सुख-दुःख, राग-द्वेषादि) द्वंद्व समूहों का नाश कीजिए।हे पृथ्वी का पालन करने वाले राजन्‌। इस दीन जन की ओर भीदृष्टि डालिए॥10॥
दोहा :
 
*बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥14 क॥
भावार्थ:-मैं आपसे बार-बार यही वरदान माँगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों का सत्संग सदा प्राप्त हो। हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिए॥
 
‪https://www.youtube.com/watch?v=tearOMjBIuY

1 comment:

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